जब भारतीय क्रिकेट में पहला राजनीतिक प्रोटेस्ट हुआ तो ICC ने चुपचाप तमाशा देखा- कब और मुद्दा क्या था? 

Updated: Sun, Mar 03 2024 12:09 IST
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पिछली ऑस्ट्रेलिया-पाकिस्तान टेस्ट सीरीज जितनी ग्राउंड पर चर्चा में रही- उससे ज्यादा ग्राउंड के बाहर। इसके लिए सबसे ज्यादा उस्मान ख्वाजा जिम्मेदार रहे- एक मौजूदा मसले पर अपने प्रोटेस्ट की वजह से। उनका भले ही जूते पर मेसेज हो या आर्मबैंड प्रोटेस्ट- कोई भी आईसीसी को पसंद नहीं आया। आईसीसी ने चेतावनी दी- आईसीसी के नियम राजनीति, धर्म या नस्ल से संबंधित व्यक्तिगत संदेशों के प्रदर्शन की इजाजत नहीं देते। इस दलील का भी कोई फायदा नहीं हुआ कि ऐसी मिसाल हैं जहां आईसीसी गाइडलाइन को तोड़ा और ऐसे व्यक्तिगत संदेश दिखाने की मंजूरी दी जो राजनीति, धर्म या नस्ल जैसे मसले से जुड़े थे।

 

क्या किसी को याद है कि भारतीय क्रिकेट में कब पहली बार क्रिकेट को सीधे राजनीति से जोड़ा गया? मजे की बात ये है कि ये वह केस है जिसमें आईसीसी ने तो कोई एक्शन नहीं लिया पर उस घटना ने भारत के क्रिकेट इतिहास पर बहुत बड़ा असर डाला। 

इन दिनों इंग्लैंड की टीम भारत में है और भारत ने 1932 में इंग्लैंड के विरुद्ध ही अपना पहला टेस्ट खेला था। भारत को टेस्ट में 158 रन से हार मिली पर टेस्ट के दौरान कुछ क्षण ऐसे भी आए जब मेजबान इंग्लिश टीम बैकफुट पर थी। इंग्लिश क्रिकेट के जानकारों ने भी टीम इंडिया के खेल की तारीफ की। इसमें दो सबसे ख़ास बात थीं- पहली तो ये कि देश पर इंग्लैंड का शासन होने के बावजूद टीम में सभी भारतीय खिलाड़ी थे और दूसरी ये कि भारत से सभी टॉप क्रिकेटर इंग्लैंड टूर पर नहीं गए थे। अगर नंबर 1 टीम के साथ खेलते तो न जाने इतिहास क्या होता?

ख़ास तौर पर, उस्मान ख्वाजा के प्रोटेस्ट से जोड़ते हुए जिस खिलाड़ी का उस टूर के संदर्भ में जिक्र सबसे ख़ास है वे विजय मर्चेंट थे- उस समय भारत में टॉप बल्लेबाज में से एक लेकिन वे टीम में नहीं थे। ऐसा नहीं है कि सेलेक्टर्स ने उन्हें चुना नहीं- उन्होंने खुले आम क्रिकेट को राजनीति से जोड़ा और टीम के साथ इंग्लैंड जाने से इंकार कर दिया। उनके विरोध की वजह थी- महात्मा गांधी और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों की कैद।

देश में स्वतंत्रता की मुहिम चल रही थी पर टीम इंग्लैंड गई- क्रिकेट की लोकप्रियता और महाराजाओं की मदद की वजह से। तब भारत में पेंटेंगुलर टूर्नामेंट खेलते थे। हालांकि सीके नायडू इसके पहले सुपरस्टार थे पर टूर टीम के कप्तान के पहले दो दावेदार, टूर का खर्चा उठाने वाले पटियाला के महाराजा भूपिंदर सिंह और विजयनगरम के महाराज कुमार (विज्जी) थे। बाद में, विज्जी रेस में पीछे रह गए जबकि पटियाला के महाराज फिट नहीं थे। तब भी कप्तान पोरबंदर के महाराजा बने और उनके बहनोई केएस लिंबडी उप-कप्तान थे। इतिहास यही है कि आखिर में जब टेस्ट खेले तो चुने कप्तान और उप-कप्तान पीछे हट गए और नायडू कप्तान बने। 

महात्मा गांधी की गिरफ्तारी के बाद, विरोध में उस समय का मशहूर क्रिकेट क्लब- हिंदू जिमखाना भी शामिल था।  इस क्लब ने 1932 के इंग्लैंड टूर पर अपने खिलाड़ियों को न भेजने का फैसला लिया और नतीजा ये रहा कि एलपी जय, विजय मर्चेंट और चंपक मेहता इंग्लैंड नहीं गए।

सविनय अवज्ञा आंदोलन (Civil Disobedience Movement) के बाद, जनवरी 1932 की शुरुआत में महात्मा गांधी गिरफ्तार हुए और वायसराय लॉर्ड विलिंगडन ने कांग्रेस पार्टी को गैरकानूनी घोषित कर दिया- इसके विरोध में हिंदू जिमखाना ने 1932 टूर का बॉयकॉट किया था। विजय मर्चेंट के न खेलने से भारत ने कैसा बल्लेबाज खोया- ये उनके रिकॉर्ड से पता चल जाता है : 10 टेस्ट में 47.72 औसत से 859 रन, फर्स्ट क्लास क्रिकेट में औसत 71.64 और रणजी ट्रॉफी में बॉम्बे के लिए 98.35 की आश्चर्यजनक औसत से 3639 रन।

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वे उभरते क्रिकेटर पर साथ में एक विकासशील देशभक्त भी थे- मर्चेंट ने विरोध शुरू किया और क्लब ने उनका साथ दिया। वैसे ये भी सच है कि जब 1932 की इंग्लिश समर में टीम इंडिया वहां खेल रही थी तो दो और बेहतरीन भारतीय बल्लेबाज़ उन दिनों काउंटी क्रिकेट खेल रहे थे।  वे भी भारत के लिए खेल सकते थे पर नहीं खेले। कौन थे और क्यों नहीं खेले- ये एक अलग स्टोरी है।  
 

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